रात क्या वक्त / Raat Kya Waqt

क्या वक़्त ‘रात’ बनाई है जन्नत में तूने,
वरना सुकून का लम्हा भी कहाँ नसीब होता।

दिन जैसे शोर में हर सांस उलझ जाती,
ना दिल चैन पाता, ना ख़्वाब करीब होता।

नींद तो आँखों में कब से ही ठहरी रहती,
पर सोने को कहने वाला कोई नहीं होता…

भीड़ के दरमियाँ भी इंसान कितना तन्हा होता,
दिन के पर्दों के पीछे कितनी थकान छुपी रहती है,
ए रात, एहसास शायद तूने ही बेहतर समझा।

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