कि जब भी मैं साँस रोककर उसे पकड़ने दौड़ती हूँ,
वो मुझसे और दूर निकल जाती है…
कभी फ़िल्टर, कभी प्रॉम्प्ट,
अब ये AI का जमाना—
ऐसा लगता है जैसे मेरे भीतर की
कविताओं और कहानियों की कोमल धड़कन
किसी ने चुपचाप दबा दी हो।
कंटेंट के पीछे दौड़-दौड़कर
मैं खुद ही एक कंटेंट बनती चली गई,
जैसे ना मिला तो साँस ही टूट जाएगी…
जैसे ये सब भी कोई नशा बन गया हो।
डर ये भी लगता है—
कि बिना सोशल मीडिया मैं कुछ कमा न पाऊँगी,
बिना मोबाइल मैं पढ़ न पाऊँगी,
बिना इस भागदौड़ के
शायद मैं दिख न पाऊँ,
बिना ChatGPT के
शायद मैं सोच भी न पाऊँ।
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